Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


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उधर पंडाल में धनुष-यज्ञ हो रहा था। कई बार इन लोगों को बुलाने के लिए आदमी आ चुके थे। कई हुक्काम भी पंडाल में आ पहुँचे थे। लोग उधर जाने को तैयार हो रहे थे कि सहसा एक अफ़गान आकर खड़ा हो गया। गोरा रंग, बड़ी-बड़ी मूँछें, ऊँचा क़द, चौड़ा सीना, आँखों में निर्भयता का उन्माद भरा हुआ, ढीला नीचा कुरता, पैरों में शलवार, ज़री के काम की सदरी, सिर पर पगड़ी और कुलाह, कन्धे में चमड़े का बैग लटकाये, कन्धे पर बन्दूक़ रखे और कमर में तलवार बाँधे न जाने किधर से आ खड़ा हो गया और गरजकर बोला -- ख़बरदार! कोई यहाँ से मत जाओ। अमारा साथ का आदमी पर डाका पड़ा हैं। यहाँ का जो सरदार है। वह अमारा आदमी को लूट लिया है, उसका माल तुमको देना होगा! एक-एक कौड़ी देना होगा। कहाँ है सरदार, उसको बुलाओ। राय साहब ने सामने आकर क्रोध-भरे स्वर में कहा -- ' कैसी लूट! कैसा डाका? यह तुम लोगों का काम है। यहाँ कोई किसी को नहीं लूटता। साफ़-साफ़ कहो, क्या मामला है?

अफ़गान ने आँखें निकालीं और बन्दूक़ का कुन्दा ज़मीन पर पटककर बोला -- अमसे पूछता है कैसा लूट, कैसा डाका? तुम लूटता है, तुम्हारा आदमी लूटता है। अम यहाँ की कोठी का मालिक है। अमारी कोठी में पचास जवान है। अमारा आदमी रुपए तहसील कर लाता था। एक हज़ार। वह तुम लूट लिया, और कहता है कैसा डाका? अम बतलायेगा कैसा डाका होता है। अमारा पचीसों जवान अबी आता है। अम तुम्हारा गाँव लूट लेगा। कोई साला कुछ नयीं कर सकता, कुछ नयीं कर सकता। खन्ना ने अफ़गान के तेवर देखे तो चुपके से उठे कि निकल जायँ। सरदार ने ज़ोर से डाँटा -- काँ जाता तुम? कोई कई नयीं जा सकता। नयीं अम सबको क़तल कर देगा। अबी फैर कर देगा। अमारा तुम कुछ नयीं कर सकता। अम तुम्हारा पुलिस से नयीं डरता। पुलिस का आदमी अमारा सकल देखकर भागता है। अमारा अपना काँसल है, अम उसको खत लिखकर लाट साहब के पास जा सकता है। अम याँ से किसी को नयीं जाने देगा। तुम अमारा एक हज़ार रुपया लूट लिया। अमारा रुपया नयीं देगा, तो अम किसी को ज़िन्दा नहीं छोड़ेगा। तुम सब आदमी दूसरों के माल को लूट करता है और याँ माशूक़ के साथ शराब पीता है। मिस मालती उसकी आँख बचाकर कमरे से निकलने लगीं कि वह बाज़ की तरह टूटकर उनके सामने आ खड़ा हुआ और बोला -- तुम इन बदमाशों से अमारा माल दिलवाये, नयीं अम तुमको उठा ले जायगा और अपनी कोठी में जशन मनायेगा। तुम्हारा हुस्न पर अम आशिक़ हो गया। या तो अमको एक हज़ार अबी-अबी दे दे या तुमको अमारे साथ चलना पड़ेगा। तुमको अम नहीं छोड़ेगा। अम तुम्हारा आशिक़ हो गया है। अमारा दिल और जिगर फटा जाता है। अमारा इस जगह पचीस जवान है। इस जिला में हमारा पाँच सौ जवान काम करता है। अम अपने क़बीले का खान है। अमारे क़बीला में दस हज़ार सिपाही हैं। अम क़ाबुल के अमीर से लड़ सकता है। अँग्रेज़ सरकार अमको बीस हज़ार सालाना ख़िराज देता है। अगर तुम हमारा रुपया नयीं देगा, तो अम गाँव लूट लेगा और तुम्हारा माशूक़ को उठा ले जायगा। ख़ून करने में अमको लुतफ़ आता है। अम ख़ून का दरिया बहा देगा! मजलिस पर आतंक छा गया। मिस मालती अपना चहकना भूल गयीं। खन्ना की पिंडलियाँ काँप रही थीं। बेचारे चोट-चपेट के भय से एक मंज़िले बँगले में रहते थे। ज़ीने पर चढ़ना उनके लिए सूली पर चढ़ने से कम न था। गरमी में भी डर के मारे कमरे में सोते थे। राय साहब को ठकुराई का अभिमान था। वह अपने ही गाँव में एक पठान से डर जाना हास्यास्पद समझते थे, लेकिन उसकी बन्दूक़ को क्या करते। उन्होंने ज़रा भी चीं-चपड़ किया और इसने बन्दूक़ चलायी। हूश तो होते ही हैं ये सब, और निशाना भी इन सबों का कितना अचूक होता है; अगर उसके हाथ में बन्दूक़ न होती, तो राय साहब उससे सींग मिलाने को भी तैयार हो जाते। मुश्किल यही थी कि दुष्ट किसी को बाहर नहीं जाने देता। नहीं, दम-के-दम में सारा गाँव जमा हो जाता और इसके पूरे जत्थे को पीट-पाटकर रख देता। आख़िर उन्होंने दिल मज़बूत किया और जान पर खेलकर बोले -- हमने आपसे कह दिया कि हम चोर-डाकू नहीं हैं। मैं यहाँ की कौंसिल का मेम्बर हूँ और यह देवीजी लखनऊ की सुप्रसिद्ध डाक्टर हैं। यहाँ सभी शरीफ़ और इज़्ज़तदार लोग जमा हैं। हमें बिलकुल ख़बर नहीं, आपके आदमियों को किसने लूटा? आप जाकर थाने में रपट कीजिए। खान ने ज़मीन पर पैर पटके, पैंतरे बदले और बन्दूक़ को कन्धे से उतारकर हाथ में लेता हुआ दहाड़ा -- मत बक-बक करो। काउंसिल का मेम्बर को अम इस तरह पैरों से कुचल देता है। (ज़मीन पर पाँव रगड़ता है) अमारा हाथ मज़बूत है, अमारा दिल मज़बूत है, अम ख़ुदा ताला के सिवा और किसी से नयीं डरता। तुम अमारा रुपया नहीं देगा, तो अम (राय साहब की तरफ़ इशारा कर) अभी तुमको कतल कर देगा। अपनी तरफ़ बन्दूक़ की नली देखकर राय साहब झुककर मेज़ के बराबर आ गये। अजीब मुसीबत में जान फँसी थी। शैतान बरबस कहे जाता है, तुमने हमारे रुपए लूट लिये। न कुछ सुनता है, न कुछ समझता है, न किसी को बाहर जाने-आने देता है। नौकर-चाकर, सिपाही-प्यादे, सब धनुष-यज्ञ देखने में मग्न थे। ज़मींदारों के नौकर यों भी आलसी और काम-चोर होते ही हैं, जब तक दस दफ़े न पुकारा जाय बोलते ही नहीं; और इस वक़्त तो वे एक शुभ काम में लगे हुए थे। धनुष-यज्ञ उनके लिए केवल तमाशा नहीं, भगवान् की लीला थी; अगर एक आदमी भी इधर आ जाता, तो सिपाहियों को ख़बर हो जाती और दम-भर में खान का सारा खानपन निकल जाता, डाढ़ी के एक-एक बाल नुच जाते। कितना ग़ुस्सेवर है। होते भी तो जल्लाद हैं। न मरने का ग़म, न जीने की ख़ुशी। मिरज़ा साहब ने चकित नेत्रों से देखा -- क्या बताऊँ, कुछ अक्ल काम नहीं करती। मैं आज अपना पिस्तौल घर ही छोड़ आया, नहीं मज़ा चखा देता। खन्ना रोना मुँह बनाकर बोले -- कुछ रुपए देकर किसी तरह इस बला को टालिए। राय साहब ने मालती की ओर देखा -- देवीजी, अब आपकी क्या सलाह है? मालती का मुख-मंडल तमतमा रहा था। बोलीं -- होगा क्या, मेरी इतनी बेईज़्ज़ती हो रही है और आप लोग बैठे देख रहे हैं! बोस मर्दो के होते एक उजड्डा पठान मेरी इतनी दुर्गति कर रहा है और आप लोगों के ख़ून में ज़रा भी गमीर् नहीं आती! आपको जान इतनी प्यारी है? क्यों एक आदमी बाहर जाकर शोर नहीं मचाता? क्यों आप लोग उस पर झपटकर उसके हाथ से बन्दूक़ नहीं छीन लेते? बन्दूक़ ही तो चलायेगा? चलाने दो। एक या दो की जान ही तो जायगी? जाने दो। मगर देवीजी मर जाने को जितना आसान समझती थीं और लोग न समझते थे। कोई आदमी बाहर निकलने की फिर हिम्मत करे और पठान ग़ुस्से में आकर दस-पाँच फैर कर दे, तो यहाँ सफ़ाया हो जायगा। बहुत होगा, पुलिस उसे फाँसी की सज़ा दे देगी। वह भी क्या ठीक। एक बड़े क़बीले का सरदार है। उसे फाँसी देते हुए सरकार भी सोच-विचार करेगी। ऊपर से दबाव पड़ेगा। राजनीति के सामने न्याय को कौन पूछता है। हमारे ऊपर उलटे मुक़दमे दायर हो जायँ और दंडकारी पुलिस बिठा दी जाय, तो आश्चर्य नहीं; कितने मज़े से हँसी-मज़ाक़ हो रहा था। अब तक ड्रामा का आनन्द उठाते होते। इस शैतान ने आकर एक नयी विपत्ति खड़ी कर दी, और ऐसा जान पड़ता है, बिना दो-एक ख़ून किये मानेगा भी नहीं। खन्ना ने मालती को फटकारा -- देवीजी, आप तो हमें ऐसा लताड़ रही हैं मानो अपनी प्राण रक्षा करना कोई पाप है, प्राण का मोह प्राणी-मात्र में होता है और हम लोगों में भी हो, तो कोई लज्जा की बात नहीं। आप हमारी जान इतनी सस्ती समझती हैं; यह देखकर मुझे खेद होता है। एक हज़ार का ही तो मुआमला है। आपके पास मुफ़्त के एक हज़ार हैं, उसे देकर क्यों नहीं बिदा कर देतीं? आप ख़ुद अपनी बेईज़्ज़ती करा रही हैं, इसमें हमारा क्या दोष?

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